बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रही

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।

Kaash Me Aisa Karta To Aisa Hota Kehna – सही मुस्लिम 6774 (तफसीर और इस्लामी नज़रिया)

क्या Kaash Me Aisa Karta To Aisa Hota Kehna इस्लाम में सही है? सही मुस्लिम हदीस 6774 की तफसीर के साथ जानिए इस सोच का इस्लामी नजरिया और तक़दीर (क़द्र) पर इसका असर।

परिचय

अक्सर जब कोई नुकसान हो जाता है या हमारा कोई काम बिगड़ जाता है, तो हम कहते हैं— “Kaash Me Aisa Karta To Aisa Hota Kehna” लेकिन इस तरह सोचना और कहना इस्लाम के मुताबिक सही है या नहीं?

सही मुस्लिम हदीस 6774 में इस बारे में खास हिदायत दी गई है। इस लेख में हम इस हदीस की तफसीर, तक़दीर (क़द्र), और इस सोच के इस्लामी पहलू को आसान भाषा में समझेंगे।

सही मुस्लिम 6774 हदीस और इसका मतलब

हदीस:

रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया:

“अगर तुम्हें कोई नुकसान पहुँचता है, तो ये मत कहो: ‘अगर मैं ऐसा करता तो ऐसा होता।’ बल्कि कहो: ‘यह अल्लाह की तक़दीर (क़द्र) थी और जो उसने चाहा वही हुआ।’ क्योंकि कहना शैतान के लिए रास्ता खोलता है।”

(सही मुस्लिम: 6774)

इस हदीस से हमें क्या सीख मिलती है?

तक़दीर (क़द्र) पर ईमान रखना जरूरी है।

“अगर मैं ऐसा करता तो ऐसा होता” कहने से शैतान (शयत़ान) का वसवसा (बहकावा) बढ़ता है।

हमें हमेशा अल्लाह की मर्जी (मरज़ी) को मानकर सब्र करना चाहिए।

इस सोच का इस्लामी नजरिया

1. तक़दीर (क़द्र) पर ईमान रखना जरूरी

इस्लाम में तक़दीर (जो कुछ भी होना है, वह पहले से अल्लाह के इल्म में है) पर ईमान रखना ईमान (ईमान) के 6 स्तंभों में से एक है।

क़ुरआन में अल्लाह फरमाता है:

“कोई भी मुसीबत न धरती पर आती है और न तुम्हारे खुद के भीतर, मगर वह एक किताब (लौहे महफ़ूज़ – لوح محفوظ) में लिखी होती है, इससे पहले कि हम उसे लाएं।”

(सूरह अल-हदीद: 22)

तक़दीर के तीन हिस्से होते हैं:

1. अल-इल्म (इल्म – ज्ञान): अल्लाह को हर चीज़ पहले से ही मालूम है।

2. अल-किताबा (लिखा जाना): हर चीज़ लौहे महफ़ूज़ में लिखी जा चुकी है।

3. अल-मशीयाह (अल्लाह की मर्जी): जो कुछ भी होता है, वह अल्लाह की मर्जी से होता है।

2. “काश” कहने से नुकसान क्या है?

जब इंसान बार-बार ये कहता है “काश मैंने ऐसा किया होता,” तो इसमें तीन नुकसान होते हैं:
✅ तक़दीर पर भरोसा कमजोर होता है।
✅ शैतान (शयत़ान) बहकाने लगता है और इंसान मायूस हो जाता है।
✅ दिल में पछतावा और अफसोस बढ़ जाता है, जो सब्र (सब्र) को खत्म करता है।

नबी ﷺ ने फरमाया:

“मजबूत ईमान वाला व्यक्ति कमजोर ईमान वाले से बेहतर और अल्लाह को ज्यादा पसंद है… अगर तुम्हें कोई नुकसान हो जाए, तो यह मत कहो, ‘अगर मैं ऐसा करता तो ऐसा होता,’ बल्कि कहो, ‘यह अल्लाह की तक़दीर थी और जो उसने चाहा, वही हुआ।’”

(सही मुस्लिम: 2664)

3. तक़दीर को अपनाने का सही तरीका

जब भी कोई नुकसान या परेशानी आए, तो हमें यह कहना चाहिए:
“क़द्दरल्लाहु वामा शा’अ फअल” (قدَّرَ اللَّهُ وَمَا شَاءَ فَعَلَ)
“अल्लाह ने तक़दीर लिख दी थी और वही हुआ जो उसने चाहा।”

इससे दिल को सुकून (सुकून) मिलता है और इंसान अल्लाह की मर्जी पर राज़ी (राजी) रहता है।

“अगर” कहने से बचने के फायदे

✅ सब्र और तक़दीर पर भरोसा बढ़ता है।
✅ शैतान (शयत़ान) के बहकावे से बचाव होता है।
✅ दिल में सुकून और सकारात्मक सोच आती है।
✅ अल्लाह की योजना पर यकीन मजबूत होता है।

✅ भविष्य में गलतियों से सीखकर सही फैसला लिया जाता है।

नतीजा (निष्कर्ष)

इस्लाम में तक़दीर (क़द्र) पर ईमान रखना बहुत जरूरी है। “काश मैं ऐसा करता तो ऐसा होता” कहना हमें शैतान (शयत़ान) के बहकावे में डाल सकता है और हमारे ईमान (ईमान) को कमजोर कर सकता है।

सही मुस्लिम हदीस 6774 के मुताबिक, हमें हर हाल में अल्लाह की मर्जी (मरज़ी) को मानकर सब्र (सब्र) करना चाहिए और यह कहना चाहिए:
“यह अल्लाह की तक़दीर थी और जो उसने चाहा वही हुआ।”

❓ क्या आपने कभी ऐसा सोचा है? अब आप क्या कहेंगे? हमें कमेंट में बताएं!

तो क्या आप भी अपनी जिंदगी में इस्लामी तरीके को अपनाएंगे? हमें कमेंट में बताएं!

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