बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रही

Table of Contents

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।

Shaban Ka Mahina: फज़ीलत, नबी ﷺ के रोज़े और शबे बरात की हकीकत

Shaban Ka Mahina – जानिए शाबान महीने की फज़ीलत, नबी ﷺ के रोज़े, शबे बरात की हकीकत और इस महीने में की जाने वाली खास इबादतें। कुरान और हदीस के हवाले के साथ पूरी जानकारी।

Shaban Ka Mahina Ki Fazilat

शाबान का महीना (शाबान का मतलब और नाम की वजह)

शाबान (شَعْبَان) इस्लामी कैलेंडर का आठवां महीना है। यह “Sha’ab” शब्द से निकला है, जिसका मतलब “अलग-अलग होना” है। अरब लोग इस महीने में पानी की तलाश में अलग-अलग स्थानों पर जाते थे, इसीलिए इसे शाबान कहा गया।

शाबान के रोज़ों की फज़ीलत

1. शाबान के महीने में नबी ﷺ के ज्यादा रोज़े रखने की गवाही

हदीस:

हज़रत आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) फ़रमाती हैं:

“मैंने नबी ﷺ को शाबान के सिवा किसी और महीने में इतना रोज़ा रखते नहीं देखा, सिवाय रमज़ान के।”

(सहीह बुखारी: 1969, सहीह मुस्लिम: 1156)

हज़रत उम्मे सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं:

मैंने नबी ﷺ को दो महीने लगातार रोज़े रखते हुए नहीं देखा, सिवाय शाबान और रमज़ान के।”

(सुनन तिर्मिज़ी: 736)

✅ मोहद्दिस हाफ़िज़ जुबै़र अली ज़ई रहिमहुल्लाह ने इस हदीस को सहीह कहा है।

2. शाबान के रोज़ों की वजह

Mahe Rajab Ki Hadees
Mahe Rajab Ki Hadees

हदीस:

हज़रत उसामा बिन ज़ैद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने पूछा:

“ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! आप शाबान में इतने ज्यादा रोज़े क्यों रखते हैं?”

तो नबी ﷺ ने फ़रमाया:

“यह महीना रजब और रमज़ान के बीच आता है, और लोग इसकी अहमियत से ग़ाफ़िल रहते हैं। इसमें आमाल (अच्छे-बुरे काम) अल्लाह के सामने पेश किए जाते हैं, और मैं चाहता हूँ कि जब मेरे आमाल पेश हों तो मैं रोज़े की हालत में रहूं।”

(सुनन निसाई: 2359)

👉 मोहद्दिस हाफ़िज़ जुबै़र अली ज़ई रहिमहुल्लाह ने इस हदीस को हसन कहा है।

(मुस्नद अहमद: 21896)

3. शाबान के आधे महीने के बाद रोज़ा रखने की मनाही

हदीस:

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

“जब शाबान का आधा हिस्सा गुजर जाए, तो रोज़े मत रखो।”

(सुन्नन अबू दाऊद: 2337)

✅ मोहद्दिस हाफ़िज़ जुबै़र अली ज़ई रहिमहुल्लाह ने इस हदीस को सहीह कहा है।

4. रमज़ान से ठीक पहले रोज़ा रखने की मनाही

हदीस:

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

“तुम में से कोई रमज़ान से एक या दो दिन पहले रोजा न रखे, सिवाय उसके जो पहले से रोज़ा रखने का आदी हो।”

(सहीह बुखारी: 1914, सहीह मुस्लिम: 1082)

✅ मोहद्दिस हाफ़िज़ जुबै़र अली ज़ई रहिमहुल्लाह ने इस हदीस को सहीह कहा है।

नोट: मालूम हुआ कि रसूलुल्लाह ﷺ रमज़ान के बाद अगर किसी महीने में सबसे ज़्यादा रोज़े रखते थे, तो वह शाबान का महीना(Shaban Ka Mahina) था।

✅ शाबान में नबी ﷺ अक्सर रोज़े रखते थे, लेकिन पूरे महीने के नहीं।

✅ यह महीना आमाल (अच्छे-बुरे काम) अल्लाह के सामने पेश किए जाने का है, इसलिए नबी ﷺ रोज़ा रखते थे।

✅ शाबान के आधे महीने के बाद रोज़ा न रखने की ताकीद की गई है, ताकि रमज़ान के रोज़े कमजोर न पड़ें।

✅ रमज़ान से ठीक पहले 1-2 दिन का रोज़ा रखना मना है, सिवाय उनके जो पहले से नफली रोज़े रखने के आदी हों।

Also Read: Roza Rakhne Ka Sahi Tarika – रोजा रखने का नियम

15 शाबान की हदीसें और उनकी हकीकत

1. 15 शाबान की रात की हकीकत

हदीस:

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:

“जब 15 शाबान आए तो उस रात क़याम करो (नमाज़ पढ़ो) और दिन में रोज़ा रखो, क्योंकि अल्लाह तआला 15 शाबान की रात को सूरज डूबने के बाद आसमाने दुनिया पर नुजूल फ़रमाता है और ऐलान करता है:

‘क्या कोई मग़फ़िरत चाहने वाला है कि मैं उसे बख़्श दूं?’

‘क्या कोई रोज़ी मांगने वाला है कि मैं उसे रोज़ी अता करूं?’

‘क्या कोई मुसीबतज़दा है जो राहत चाहता हो कि मैं उसे मुसीबत से छुटकारा दूं?’

(सुनन इब्ने माजा – 1388)

इस हदीस की हकीकत

✅ हाफ़िज़ इब्ने हजर रह. बयान करते हैं कि इस हदीस के एक रावी अबु बक्र बिन अबी सबरह को हदीसें गढ़ने वाला कहा गया है।

✅ अल्लामा ज़हबी और इमाम बुख़ारी ने इस हदीस को ज़ईफ़ (कमज़ोर) कहा। (मिज़ान अल एतेदाल, जिल्द 4, सफा 503)

✅ इमाम नसाई ने इसे मतरूक कहा।

✅ इसी सनद में दो और रावी अहमद और इब्ने मोईन हैं, जिन्हें हदीसें गढ़ने वाला कहा गया है। (अल सुनन वल मुबतदिआत)

2. 15 शाबान के रोज़े की हकीकत

हदीस:

“जो 15 शाबान का रोज़ा रखे, उसके 60 साल गुज़िश्ता और 60 साल आइन्दा के गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे।”

(रावी: हज़रत अली रज़ि., अल मौज़ आत, जिल्द 2, सफा 130 – इब्ने जौज़ी)

इस हदीस की हकीकत

✅ इब्ने जौज़ी रह. का बयान है कि यह हदीस मौज़ूअ (मन घड़त) है।

✅ इस हदीस को गढ़ने वाला मुहम्मद बिन महाजिर था, जो नाम बदलकर हदीसें बयान करता था।

✅ इमाम अहमद बिन हम्बल रह. ने भी कहा कि यह हदीस गढ़ता था।

3. 15 शाबान के रोज़े का हुक्म

अल्लामा मुबारकपुरी रह. लिखते हैं:

“15 शाबान के रोज़े के बारे में कोई भी मरफूअ हदीस सहीह, हसन या हल्की ज़ईफ़ रिवायत भी मौजूद नहीं है।” (मिरआत अल मफातीह, जिल्द 4, सफा 344)

✅ इसलिए सिर्फ 15 शाबान का रोज़ा सुन्नत समझकर रखना बिदअत और खिलाफे सुन्नत है। हां, अगर कोई हर महीने की 13, 14 और 15 तारीख को रोज़ा रखता है, तो उस दिन रोज़ा रखने में कोई बुराई नहीं।

अहम बात

✅ अगर कोई शाबान के बाकी दिनों में रोज़े रखता है, तो 15 शाबान का रोज़ा भी वैसे ही रख सकता है, लेकिन इसे ख़ास फज़ीलत वाला समझकर रखना सही नहीं है।

4. शबे बरात: बख्शिश की रात

अबू मूसा अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम ﷺ ने फरमाया:

“अल्लाह तआला शाबान की पंद्रहवीं रात अपने तमाम बंदों की तरफ नजर फरमाता है और मुशरिक व कीना रखने वालों के अलावा सबकी मगफिरत कर देता है।”

(सुनन इब्ने माजा: 1390)

हदीस की सनद:

👉 यह हदीस इब्ने माजा में दो अलग-अलग सनदों से रिवायत की गई है, लेकिन दोनों सनदें कमजोर (ज़ईफ) हैं:

✅ पहली सनद वलीद बिन मुस्लिम की तदलीस और इब्ने अब्दुर्रहमान व अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु के बीच इन्किता (संबंध कटने) की वजह से ज़ईफ है।
✅ दूसरी सनद इब्ने लहिया के इख्तिलात (गड़बड़ी), जबीर बिन सलीम व अब्दुर्रहमान बिन अरज़ब के मजहूल (अज्ञात रावी) होने और अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से मुलाकात साबित न होने के कारण ज़ईफ है।

5. लैलतुल कद्र (शबे क़द्र) – कुरान कब नाज़िल हुआ?

❌ कुछ लोगों का यह मानना है कि कुरान शाबान 2024 में नाज़िल हुआ और लैलतुल कद्र (शबे क़द्र) भी शाबान के महीने में थी। लेकिन हमें इस बारे में कुरान और हदीस से सही मार्गदर्शन लेना चाहिए।

1. कुरान शबे क़द्र (लैलतुल कद्र) में नाज़िल हुआ

अल्लाह तआला ने इरशाद फरमाया:

“हमने कुरान को लैलतुल कद्र में नाज़िल करना शुरू किया और तुम्हें क्या मालूम कि लैलतुल कद्र क्या है? लैलतुल कद्र (शबे क़द्र) हजार महीनों से बेहतर है। इस रात में फरिश्ते और जिब्राईल अमीन, अपने रब के हुक्म से तमाम कामों के फैसले लेकर उतरते हैं। यह रात फज्र (सुबह) होने तक सलामती वाली होती है।”

(सूरह अल-कद्र 97:1-5)

2. कुरान एक मुबारक रात में नाज़िल हुआ

“हमने कुरान को एक मुबारक रात में नाज़िल किया। बेशक, हम अजाब से डराने वाले हैं। इसी रात में तमाम दुनिया के हर फैसले किए जाते हैं।”

(सूरह अद-दुखान 44:3-4)

3. कुरान रमज़ान के महीने में नाज़िल हुआ

“रमज़ान का महीना वह है, जिसमें कुरान नाज़िल किया गया, जो लोगों के लिए हिदायत है और जिसमें हिदायत और हक़ को अलग करने वाली साफ़ बातें हैं।”

(सूरह अल-बक़रा 2:185)

हदीस की गवाही:

👉 हदीस में भी कुरान के रमज़ान में नाज़िल होने की तस्दीख़ मिलती है।

हाफिज़ इमाम शौकानी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं:

“जमहूर (अधिकतर) उलेमा के नज़दीक लैलतुल कद्र से मुराद वही शबे क़द्र है जिसमें कुरान नाज़िल किया गया और जो रमज़ान के आख़िरी अशरे (दस रातों) की ताक़ रातों में से एक है।”

(फतहुल क़दीर, जिल्द 4, सफा 554)

नतीजा:

✅ इन कुरान और हदीस की रौशनी में यह साबित होता है कि कुरान रमज़ान के महीने में ही नाज़िल हुआ, न कि शाबान में। इसलिए यह कहना गलत होगा कि कुरान शाबान 2024 में नाज़िल हुआ था। कुरान रमज़ान के महीने की एक मुबारक रात में नाज़िल हुआ, जिसे लैलतुल कद्र कहा जाता है, और जो रमज़ान के आखिरी अशरे (ताक़ रातों) में से एक होती है।

6. शबे बरात की सच्चाई – Shab e Barat

❌ कुछ लोग शबे बरात से 15वीं शाबान की रात मुराद लेते हैं और इसकी फज़ीलत में कुछ हदीसें पेश करते हैं। आइए हम कुरान और हदीस की रोशनी में इस रात की हकीकत को समझने की कोशिश करते हैं।

15वीं शाबान की फज़ीलत के बारे में बयान की जाने वाली हदीस:

हदीस:

हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि उन्होंने फरमाया:

“मैंने एक रात अल्लाह के रसूल ﷺ को न पाया, तो मैं आपकी तलाश में निकली। मैंने देखा कि आप आसमान की तरफ़ सिर उठाए हुए थे। फिर आपने मुझसे फ़रमाया: ‘क्या तुम्हें इस बात का खौफ़ हुआ कि अल्लाह और उसका रसूल तुम पर जुल्म करेंगे?’ इसके बाद आपने फरमाया कि अल्लाह तआला शाबान की पंद्रहवीं रात आसमाने दुनिया (पहले आसमान) पर नुजूल फरमाते हैं और कबीला बनू कल्ब की बकरियों के बालों से ज़्यादा लोगों के गुनाहों को बख्श देते हैं।”

(तिर्मिज़ी: 636, इब्ने माजा: 1389)

इस हदीस की सनद (प्रामाणिकता) पर उलेमा की राय:

इमाम तिर्मिज़ी रह. ने इस हदीस को बयान करने के बाद लिखा कि:

1. इमाम बुखारी रह. इस हदीस को ज़ईफ (कमज़ोर) कहते थे, क्योंकि इस रिवायत की सनद में यहया बिन अबी कसीर और वाहब बिन जुबैर के बीच समाअ (सुनने का प्रमाण) नहीं है।

2. हिजाज बिन अरता और यहया बिन अबी कसीर ने तदलीस (मतलब संदिग्ध रूप से बयान करना) किया है, जिससे यह हदीस कमजोर हो जाती है।

3. इमाम दारकुतनी रह. ने इस हदीस को “ग़ैर साबित” (अस्थायी और कमजोर) कहा है।

क्या 15वीं शाबान की रात की कोई खास अहमियत साबित है?

✅ कुरान में कहीं भी शबे बरात का जिक्र नहीं है।

✅ सहीह हदीसों में भी इसकी खास फज़ीलत का कोई पक्का सुबूत नहीं मिलता।

✅ कई मशहूर मुहद्दिसीन (हदीस के विशेषज्ञ) जैसे इमाम बुखारी, इमाम मुस्लिम, इमाम दारकुतनी आदि ने 15वीं शाबान की फज़ीलत से जुड़ी हदीसों को ज़ईफ करार दिया है।

नतीजा:

✅ शबे बरात (15 शाबान) की रात के बारे में जो हदीसें बयान की जाती हैं, वे कमज़ोर (ज़ईफ) हैं और उनकी प्रामाणिकता पर संदेह है। इसलिए इस रात की कोई खास इबादत, नफिल नमाज़ या रोज़े को खास तौर पर मनाने का इस्लाम में कोई पक्का सुबूत नहीं है।

✅ हाँ, अगर कोई आम दिनों की तरह इबादत करता है या तौबा करता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन इसे किसी खास फज़ीलत वाली रात मानकर विशेष अमल करना शरई (इस्लामी प्रमाणिकता) के मुताबिक सही नहीं है।

7. 15वीं शाबान को नबी ﷺ का लंबा सज्दा – हदीस की हकीकत

कुछ लोग यह बयान करते हैं कि 15वीं शाबान की रात नबी करीम ﷺ ने लंबा सज्दा किया और इस रात की खास फज़ीलत बयान की। इसके लिए हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से एक हदीस को पेश किया जाता है।

हदीस:

हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं:

*”रसूलुल्लाह ﷺ 15वीं शाबान की रात इबादत में खड़े होकर नमाज़ पढ़ने लगे, फिर आपने इतना लंबा सज्दा किया कि मुझे यह गुमान हुआ कि आपका इंतिकाल हो गया। फिर जब आपने सज्दे से सिर उठाया और नमाज़ मुकम्मल की, तो फ़रमाया: ‘आज के दिन यानी 15वीं शाबान की रात, अल्लाह तआला गुनाहों की माफी चाहने वालों की मगफिरत फरमाता है, रहमत चाहने वालों पर नज़रे रहमत करता है और कीना रखने वालों को उनके हाल पर छोड़ देता है।'”

(रिवायत: बैहकी)

इस हदीस की सनद (प्रामाणिकता) पर उलेमा की राय:
1. यह रिवायत मुरसल (कमजोर) है।

मुरसल हदीस वह होती है जिसमें एक रावी किसी सहाबी का नाम लिए बिना हदीस बयान करता है।

इस हदीस के रावी अला बिन हारिस का हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से समाअ (सुनने का प्रमाण) साबित नहीं है।

यानी यह हदीस “मुनक़ती” (कटी हुई सनद) की वजह से ज़ईफ (कमजोर) मानी जाती है।

2. इमाम बैहकी ने खुद बयान किया कि यह हदीस मजबूत नहीं है।

(तोहफा अला हूज़ी, जिल्द 2, सफा 52) में लिखा है कि यह हदीस मुरसल और ज़ईफ है।

नतीजा:

✅ 15वीं शाबान की रात नबी ﷺ के लंबे सज्दे की हदीस कमजोर (ज़ईफ) है और इसकी प्रामाणिकता पर संदेह है।
इसलिए इस रात को कोई खास इबादत के लिए मुकर्रर करना सहीह सुन्नत से साबित नहीं है।
हाँ, अगर कोई आम दिनों की तरह इबादत करता है या तौबा करता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन इसे खास फज़ीलत वाली रात मानकर विशेष अमल करना सही नहीं है।

8. 15वीं शाबान की खास नमाज़ें पढ़ना कैसा है? – Shab-e-Barat Ki Namaz

❌ कुछ लोग 15वीं शाबान (Shab e Barat) की रात को खास नमाज़ें पढ़ने को बहुत फज़ीलत वाला अमल बताते हैं और इसके लिए एक हदीस पेश करते हैं।

हदीस:

हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से मंसूब एक रिवायत में आता है:

“जो शाबान की 15वीं रात (15 Shaban 2024) में 100 रकअत नमाज़ में 1000 बार सूरह इखलास पढ़ेगा, वह मौत से पहले सौ फरिश्तों को अपने ख्वाब में देखेगा। उनमें से 30 फरिश्ते उसे जहन्नम से अमान देंगे, 30 फरिश्ते उसे जन्नत की बशारत देंगे, 20 फरिश्ते उसके दुश्मनों से उसकी हिफाजत करेंगे और 20 फरिश्ते उसकी हर गुनाह से हिफाजत करेंगे।”

(इब्ने उमर रज़ि. से मंसूब)

इस हदीस की हकीकत क्या है?

1. इब्ने ज़ौज़ी और शौकानी रह. फरमाते हैं कि यह रिवायत मनगढ़त (मौज़ू) है।

2. इसके अधिकतर रावी (नकल करने वाले) मजहूल (अज्ञात) हैं, यानी उनकी सत्यता साबित नहीं।

3. इमाम इब्ने इराक और इमाम सुयुती रह. ने भी इस हदीस को मौज़ू (मनगढ़त) कहा है।

4. इमाम इब्ने कसीर और अन्य मुहद्दिसीन ने भी इसे गलत बताया है।

(किताब अल-मौजूआत, जिल्द 2, सफा 51)

✅ 15वीं शाबान की रात 100 रकअत नमाज़ और 1000 बार सूरह इखलास पढ़ने वाली हदीस मनगढ़त (मौज़ू) है और इसका कोई शरई (इस्लामी) आधार नहीं है। इसलिए इस रात को खास इबादत की रात मानकर विशेष अमल करना बिदअत (नया अमल) होगा, जिसका कोई सुबूत नहीं। हाँ, अगर कोई आम दिनों की तरह नफ्ल नमाज़, तौबा और इबादत करता है, तो यह जायज़ है, लेकिन इसे किसी खास फज़ीलत के साथ मानना गलत होगा।

9. 15वीं शाबान की रात की इबादत करने वाले का दिल क़यामत के दिन नहीं मरेगा?

हदीस:

“जिसने 15वीं शाबान (15 Shaban 2024) की रात इबादत की, उसका दिल उस दिन नहीं मरेगा जिस दिन लोगों के दिल मुर्दा हो जाएंगे।”

(करदूस रज़ि. से मंसूब)

✅ इस हदीस की हकीकत:

1. यह हदीस सही नहीं है।

2. इसका एक रावी मरवान बिन सालिम सहीह (विश्वसनीय) नहीं है।

3. इमाम अहमद फरमाते हैं कि यह “मतरूक” (छोड़ा हुआ) रावी है।

4. दूसरा रावी सलमा बिन सुलैमान ज़ईफ (कमजोर) है।

5. ईसा बिन इब्राहीम “मुनक़र अल-हदीस” है, यानी उसकी रिवायतों को नहीं लिया जाता।

(मिज़ान उल-एतिदाल, जिल्द 3, सफा 308)

10. 15वीं शाबान में अगले साल के फैसले लिखे जाते हैं?

कुछ लोग यह कहते हैं कि 15वीं शाबान की रात अगले साल के लिए निकाह, औलाद और मौत के फैसले कर दिए जाते हैं।

✅ हदीस की हकीकत:

1. यह हदीस “मुरसिल” (कमजोर) है।

2. ऐसी हदीसों से कुरान के हुक्म को रद्द नहीं किया जा सकता।

(तफ़सीर इब्ने कसीर, जिल्द 5, सफा 62)

11. 15वीं शाबान की रात की कुछ मशहूर इबादतों की हकीकत

1. सलाते अलफिया (हज़ारी नमाज़) की हकीकत

❌ यह 100 रकअत की नमाज़ होती है, जिसमें हर रकअत में 10 बार सूरह इखलास पढ़ी जाती है।

हकीकत:

✅ इस नमाज़ का कोई सुबूत न कुरान में है, न सही हदीस में।

✅ यह एक बिदअत (नई गढ़ी हुई चीज़) है।

✅ हर बिदअत गुमराही है।

2. सौ रकअत नमाज़ (100 Rakat Namaz) की हकीकत

हदीस:

“जिसने 15वीं शाबान की रात 100 रकअतें पढ़ीं, तो अल्लाह उसकी तरफ़ 100 फरिश्ते भेजेगा। 30 उसे जन्नत की बशारत देंगे, 30 जहन्नम से निजात देंगे, 30 दुनिया की मुसीबतों से बचाएंगे और 10 उसे शैतान से दूर रखेंगे।”

हकीकत:

✅ यह हदीस मनगढ़त (मौजूअ) है।

✅ साहिबे कश्शाफ ने इसे बिना सनद (प्रमाण) के बयान किया है।

✅ मुल्ला अली कारी हनफ़ी फरमाते हैं कि यह नमाज़ इस्लाम में चौथी सदी हिजरी के बाद गढ़ी गई।

(अल मौजूआत, सफा 440)

3. 15वीं शाबान में 12 रकअत नमाज़ पढ़ना

हदीस:

“जिसने 15वीं शाबान की रात 12 रकअतें पढ़ीं और हर रकअत में 30 बार सूरह इखलास पढ़ी, उसे मरने से पहले जन्नत में उसका मक़ाम दिखा दिया जाएगा और उसके घर वालों में से 10 लोगों के लिए सिफारिश कुबूल की जाएगी।”

✅ हकीकत:

इब्ने जौज़ी फरमाते हैं कि यह हदीस मौजूअ (मनगढ़त) है।

इसके रावी मजहूल (अज्ञात) हैं।

इमाम सुयुती, इब्ने हजर और इब्ने इराक ने भी इसे मौजूअ कहा है।

(अल ललमु तनाहिया, जिल्द 1, सफा 70)

4. सलातुर्रगाइब (Salatul Raghaib) पढ़ना कैसा?

✅ हकीकत:

इमाम इराकी फरमाते हैं कि 15वीं शाबान की रात की नमाज़ वाली हदीस मनगढ़त (झूठी) है।

इमाम नववी रह. लिखते हैं कि सलातुर्रगाइब नाम की कोई नमाज़ इस्लाम में नहीं है।

इमाम मुक़द्दसी ने लिखा कि यह नमाज़ 448 हिजरी में गढ़ी गई।

इब्ने तैमिया रह. ने फरमाया कि इस नमाज़ को न नबी (ﷺ) ने पढ़ा, न सहाबा ने और न ही ताबईन ने।

(अल मुनकरात, जिल्द 4, सफा 57)

नतीजा

✅ 15वीं शाबान की रात में खास नमाज़ें पढ़ने की कोई सही हदीस मौजूद नहीं है।

✅ 100 रकअत, 12 रकअत, सलाते अलफिया और सलातुर्रगाइब जैसी नमाज़ें सब मनगढ़त और बिदअत हैं।

✅ सिर्फ सही हदीसों और कुरान पर अमल करना ही सहीह इस्लामी तरीका है।

✅ 15वीं शाबान की रात तौबा, नफ्ल नमाज़ और ज़िक्र किया जा सकता है, लेकिन इसे खास फज़ीलत वाली रात मानना गलत होगा।

12. शबे बराअत और हलवा खाने की हकीकत – Shab e Barat Ka Halwa

शबे बराअत (15 Shaban) के मौके पर कई जगहों पर हलवा बनाने और खाने की परंपरा देखने को मिलती है। कुछ लोग इसे रसूलुल्लाह (ﷺ) की जंगे उहद में मुबारक दांत की शहादत से जोड़ते हैं, तो कुछ इसे हज़रत हमज़ा (रज़ि.) की शहादत पर उनकी फातिहा से जोड़ते हैं। आइए इस दावे की सही इस्लामी और ऐतिहासिक हकीकत को समझते हैं।

1. क्या जंगे उहद के दिन रसूलुल्लाह (ﷺ) ने हलवा खाया था?

❌ कुछ लोग यह दावा करते हैं कि जब जंगे उहद में रसूलुल्लाह (ﷺ) के मुबारक दांत शहीद हुए, तो आपने हलवा खाया।

✅ हकीकत:

यह दावा ऐतिहासिक रूप से गलत है।

“जंगे उहद” शव्वाल 3 हिजरी में हुई थी, जबकि शबे बराअत का 15 शाबान से कोई ताल्लुक नहीं है।

किसी भी सहीह हदीस में यह बात साबित नहीं कि रसूलुल्लाह (ﷺ) ने जंगे उहद के बाद हलवा खाया।

2. क्या यह हज़रत हमज़ा (रज़ि.) की फातिहा का हिस्सा है?

❌ कुछ लोग शबे बराअत पर हलवा खाने को हज़रत हमज़ा (रज़ि.) की शहादत की फातिहा बताते हैं।

✅ हकीकत:

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) जंगे उहद में शहीद हुए थे, जो शव्वाल 3 हिजरी में हुई थी।

इसका 15वीं शाबान की रात (Shab e Barat) से कोई संबंध नहीं है।

किसी सही हदीस में यह नहीं आया कि सहाबा (रज़ि.) ने इस दिन हलवा बनाया या खाया।

3. क्या उवैस अल-क़रनी (रह.) ने अपने दांत तोड़कर हलवा खाया था?

❌ कुछ लोग यह भी कहते हैं कि हज़रत उवैस अल-क़रनी (रह.) ने रसूलुल्लाह (ﷺ) के मुबारक दांत की शहादत की खबर सुनकर अपने सारे दांत तोड़ दिए और हलवा खाया।

✅ हकीकत:

यह बात सहीह हदीस या इतिहास की किसी प्रमाणिक किताब में नहीं मिलती।

हज़रत उवैस अल-क़रनी (रह.) का रसूलुल्लाह (ﷺ) से कोई प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं थी, फिर भी वे सच्चे आशिक-ए-रसूल थे।

हलवा खाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता।

4. हलवा खाने की परंपरा कहाँ से आई?

 इस्लामी इतिहास और हदीस की किताबों में शबे बराअत पर हलवा बनाने और खाने का कोई उल्लेख नहीं है।

✅ यह परंपरा संभवतः बाद में कुछ खास इलाकों में विकसित हुई और इसे धार्मिक रंग दे दिया गया।

इस्लाम में कोई भी नई इबादत, रस्म या परंपरा बिना सहीह हदीस के नहीं बनाई जा सकती।

✅ हकीकत:

1️⃣ शबे बराअत पर हलवा बनाना और इसे धार्मिक परंपरा समझना सही नहीं है।

2️⃣ न रसूलुल्लाह (ﷺ), न सहाबा (रज़ि.), न ताबईन (रह.) ने इस दिन हलवा बनाया या खाया।

3️⃣ जंगे उहद और हलवा खाने का आपस में कोई संबंध नहीं है।

4️⃣ इस्लाम में हर नया गढ़ा हुआ अमल (बिदअत) गुमराही है।

13. शबे बरात में चिराग़ा

कुछ लोग 15वीं शाबान (Shab e Barat) की रात मस्जिदों, घरों, बाज़ारों और कब्रिस्तानों में चिराग़ा (रोशनी) करते हैं। लेकिन क्या यह अमल इस्लाम में साबित है? क्या रसूलुल्लाह (ﷺ) या सहाबा (रज़ि.) ने ऐसा किया था? आइए इस पर सहीह इस्लामी नज़रिए से चर्चा करते हैं।

1. क्या शबे बराअत में चिराग़ा करना सुन्नत है?

❌ कुछ लोग मस्जिदों, घरों और कब्रिस्तानों में दीए, मोमबत्तियां और लाइटें जलाते हैं और इसे इबादत समझते हैं।

✅ हकीकत:

कुरआन और सहीह हदीसों में कहीं भी यह साबित नहीं कि रसूलुल्लाह (ﷺ) या सहाबा (रज़ि.) ने शबे बराअत में चिराग़ा किया हो।

इस्लाम में इबादत के नाम पर कोई नया काम गढ़ना (बिदअत) हराम और गुमराही है।

✍ रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“जिसने हमारे इस दीन में कोई नई बात निकाली, जो इसमें से नहीं थी, तो वह अमल مردूद (नामंज़ूर) है।”

(📖 सहीह बुखारी: 2697, सहीह मुस्लिम: 1718)

2. क्या सहाबा (रज़ि.) और ताबईन (रह.) ने चिराग़ा किया?

सहाबा (रज़ि.), ताबईन (रह.) और तबा ताबईन (रह.) के ज़माने में शबे बराअत के मौके पर चिराग़ा करने की कोई मिसाल नहीं मिलती।

अगर यह काम अच्छा होता तो सबसे पहले सहाबा (रज़ि.) करते, क्योंकि वे दीन को हमसे बेहतर समझते थे।

3. चिराग़ा करने की शुरुआत कहाँ से हुई?

इतिहासकारों के मुताबिक, यह काम इस्लामी शिक्षाओं से नहीं आया बल्कि यह बाद के ज़माने में कुछ ग़लत फिरकों ने गढ़ा।

बरमकी लोग (जो बातिनी फिरके से थे) इस रात चिराग़ा करते थे।

धीरे-धीरे यह रस्म आम हो गई और इसे इबादत की शक्ल दे दी गई।

4. कब्रिस्तानों में चिराग़ा करने की हकीकत

❌ कुछ लोग इस रात कब्रिस्तानों में जाते हैं और वहां चिराग़ा करते हैं।

✅ हकीकत:

इस्लाम में कब्रिस्तान जाना मना नहीं है, लेकिन वहां चिराग़ा करना, अगरबत्तियां जलाना या रोशनी करना सहीह हदीसों के खिलाफ़ है।

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने कब्रों पर रोशनी करने और वहां इबादत करने से मना किया है।

📖 रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“कब्र को मस्जिद मत बनाओ और उस पर दीए मत जलाओ।”

(📖 सुन्नन नसाई: 2042, अबू दाऊद: 3236)

✅ हकीकत:

1️⃣ शबे बराअत में चिराग़ा करने का कोई सुबूत नहीं मिलता।

2️⃣ यह रस्म इस्लाम से नहीं बल्कि बाद में गढ़ी गई बिदअत (नई चीज़) है।

3️⃣ मस्जिदों, घरों और कब्रिस्तानों में रोशनी करना नबी (ﷺ) और सहाबा (रज़ि.) से साबित नहीं।

4️⃣ बरमकी और बातिनी फिरके से यह अमल आया, जिसे बाद में कुछ लोगों ने दीन बना दिया।

14. रूहों की वापसी का अक़ीदा – Kya 15 Shaban Ko Murdo Ki Rooh Wapas Aati Hai?

❌ कुछ लोगों का यह अक़ीदा (मान्यता) है कि 15वीं शाबान (Shab e Barat) की रात मरने वालों की रूहें (आत्माएं) अपने घर लौटती हैं। इसलिए वे घर सजाते हैं, रोशनी करते हैं और हलवे वगैरह पर फातिहा पढ़कर उनका सवाब पहुंचाने की कोशिश करते हैं।

लेकिन क्या यह मान्यता इस्लाम में सहीह (सत्य) है? क्या इसकी कोई दलील (प्रमाण) कुरआन और हदीस में मिलती है? आइए इस पर सहीह इस्लामी दृष्टिकोण से चर्चा करते हैं।

1. क्या मरने के बाद रूहें घर लौटती हैं?

इस्लाम का स्पष्ट अक़ीदा यह है कि मरने के बाद इंसान की रूह बरज़ख़ (मध्यलोक) में चली जाती है और क़यामत तक दुनिया में वापस नहीं आ सकती।

📖 कुरआन में अल्लाह फरमाता है:

“फिर उनके मरने के बाद, वे ऐसे बरज़ख़ (मध्यलोक) में रहते हैं कि क़यामत तक वापस नहीं आ सकते।”

(📖 सूरह मोमिनून: 23:100)

📖 एक और जगह फरमाया:

“क्या उन्होंने नहीं देखा कि उनसे पहले कितनी क़ौमें हलाक कर दी गईं, जो अब कभी उनकी तरफ़ वापस नहीं लौटेंगी?”

(📖 सूरह यासीन: 36:31)

✅ इन आयतों से साफ़ साबित होता है कि रूहें मरने के बाद क़यामत से पहले वापस दुनिया में नहीं आतीं।

2. रूहें कहाँ रहती हैं?

📖 कुरआन में अल्लाह फरमाता है:

मोमिनों की रूहें ‘इल्लीयीन’ में रहती हैं

“यक़ीनन नेकी करने वालों का नाम-ए-अमाल (अच्छे कर्मों का रिकॉर्ड) इल्लीयीन में होगा।”

(📖 सूरह तत्फीफ: 83:18)

काफ़िरों की रूहें ‘सिज्जीन’ में रहती हैं

“यक़ीनन बदकिरदारों का नाम-ए-अमाल सिज्जीन में होगा।”

(📖 सूरह तत्फीफ: 83:7)

✅ इससे पता चलता है कि रूहें दुनिया में लौटने के बजाय इल्लीयीन (मोमिनों के लिए) और सिज्जीन (काफ़िरों के लिए) में रहती हैं।

3. क्या हदीस में रूहों की वापसी का ज़िक्र है?

रसूलुल्लाह (ﷺ) से कोई सहीह हदीस साबित नहीं, जिसमें कहा गया हो कि 15 शाबान को रूहें वापस घर आती हैं।

📖 रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“जब इंसान मर जाता है, तो उसका अमल (कर्म) बंद हो जाता है, सिवाय तीन चीज़ों के: (1) सदक़ा जारिया (जारी रहने वाला दान), (2) ऐसा इल्म जिससे फ़ायदा उठाया जाए, (3) नेक औलाद जो उसके लिए दुआ करे।”

(📖 सहीह मुस्लिम: 1631)

✅ इस हदीस से साबित होता है कि मरने के बाद इंसान की आत्मा दुनिया में नहीं आती, बल्कि उसकी औलाद या लोग उसकी मगफिरत (मुक्ति) के लिए दुआ कर सकते हैं।

4. फातिहा और हलवे का सवाब रूहों तक पहुँचाना

❌ कुछ लोग 15 शाबान को हलवा बनाते हैं और फातिहा पढ़कर मानते हैं कि यह सवाब मरने वालों तक पहुँचता है।

✅ लेकिन सवाब पहुँचाने के लिए हलवा या चिराग़ा करना ज़रूरी नहीं है। इस्लाम में सिर्फ़ सदक़ा, दुआ और नेक अमल का सवाब मरने वालों को पहुँच सकता है।

📖 रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“जब तुम अपने मरे हुए लोगों के लिए दुआ करते हो, तो अल्लाह उनकी मगफिरत कर देता है।”

(📖 मुस्नद अहमद: 8040)

5. 15 Shaban को रूहों की वापसी का अक़ीदा कहाँ से आया?

यह अक़ीदा इस्लामी शिक्षाओं से नहीं, बल्कि कुछ ग़लत मान्यताओं से आया।

हिंदू धर्म और अन्य मज़हबों में ‘पितृ पक्ष’ नामक परंपरा है, जिसमें पूर्वजों की आत्माओं की वापसी मानी जाती है।

कुछ लोगों ने इसी ग़लत विचार को इस्लाम में मिला दिया, जबकि इसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है।

✅ हकीकत:

1. मरने के बाद रूहें वापस नहीं आतीं।

2. 15 Shaban की रात को रूहों की वापसी का कोई सुबूत कुरआन और हदीस में नहीं।

3. रूहें इल्लीयीन (मोमिनों के लिए) और सिज्जीन (काफ़िरों के लिए) में रहती हैं।

4. हलवा बनाना, फातिहा पढ़ना और चिराग़ा करना सिर्फ़ एक ग़लत परंपरा है।

5. मरने वालों को सिर्फ़ सदक़ा, दुआ और नेक अमल का सवाब पहुँच सकता है।

15. शबे बरात और कब्रिस्तान की ज़ियारत – क्या 15 Shaban की रात कब्रिस्तान जाना सुन्नत है?

कब्रों की ज़ियारत (गौर-तलब यात्रा) इस्लाम में एक मुस्तहब (पसंदीदा) अमल है।

📖 रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“मैंने तुम्हें कब्रों की ज़ियारत से मना किया था, लेकिन अब इसकी इजाज़त दी जाती है, क्योंकि इससे मौत की याद ताज़ा होती है।”

(📖 सहीह मुस्लिम: 977)

✅ इस हदीस से साबित होता है कि कब्रिस्तान जाना जायज़ (अनुमेय) और फायदेमंद है, क्योंकि इससे इंसान को मौत की याद आती है, दुनिया से बे-रग़बती बढ़ती है और मरने वालों के लिए दुआ करने का मौका मिलता है।

❌ लेकिन सवाल यह है कि क्या खास तौर पर 15 Shaban की रात को कब्रिस्तान जाना सुन्नत है?

1. क्या 15 Shaban की रात कब्रिस्तान जाना सुन्नत है?

कुछ लोग हज़रत आयशा (रज़ि.) से मروی (वर्णित) एक हदीस से दलील पेश करते हैं कि रसूलुल्लाह (ﷺ) शबे बरात की रात कब्रिस्तान गए थे।

📖 यह हदीस तिर्मिज़ी में है:

“एक रात मैंने रसूलुल्लाह (ﷺ) को नहीं पाया, तो मैंने उन्हें ढूंढा और पाया कि वे जन्नतुल बक़ी में (मदीने का कब्रिस्तान) थे।”

(📖 जामे तिर्मिज़ी: 739)

❌ लेकिन यह हदीस सहीह नहीं है।

🔹 इमाम तिर्मिज़ी (रह.) ने खुद कहा:

“इमाम बुखारी (रह.) इस हदीस को ज़ईफ़ (कमज़ोर) मानते थे।”

(📖 तिर्मिज़ी – जिल्द 3, पृष्ठ 38)

✅ इस हदीस के कई रावी कमजोर हैं, और इसे सुन्नत के तौर पर मानना सही नहीं।

2. क्या रसूलुल्लाह (ﷺ) ने 15 Shaban की रात कब्रिस्तान जाने का हुक्म दिया?

❌ नहीं!

कोई सहीह हदीस नहीं मिलती जिसमें कहा गया हो कि रसूलुल्लाह (ﷺ) ने शबे बरात की रात कब्रिस्तान जाने का हुक्म दिया हो।

रसूलुल्लाह (ﷺ) आम तौर पर कब्रिस्तान जाया करते थे, लेकिन उन्होंने इसे किसी खास रात के साथ नहीं जोड़ा।

📖 रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“तुम कब्रिस्तान जाया करो, क्योंकि इससे मौत की याद आती है।”

(📖 सहीह मुस्लिम: 977)

✅ इससे पता चलता है कि कब्रिस्तान की ज़ियारत हर वक्त कर सकते हैं, लेकिन इसे किसी खास रात के साथ जोड़ना जायज़ नहीं।

✅ हकीकत:

1. कब्रों की ज़ियारत सुन्नत है, लेकिन 15 Shaban की रात को इसके लिए खास कर लेना जायज़ नहीं।

2. जो हदीस 15 Shaban की रात रसूलुल्लाह (ﷺ) के कब्रिस्तान जाने की है, वह ज़ईफ़ (कमज़ोर) है।

3. सहीह हदीसों में ऐसा कोई हुक्म नहीं कि शबे बरात की रात कब्रिस्तान जाना ज़रूरी हो।

4. हर वक्त और किसी भी दिन कब्रिस्तान जाना सहीह है, लेकिन इसे किसी खास तारीख़ से जोड़ना बिदअत (नया गढ़ा हुआ अमल) है।

16. शबे बराअत – इसका नाम और मतलब क्या है?

✍ शब – यह फारसी ज़बान का लफ्ज़ है, जिसका मतलब रात होता है।
✍ बराअत – यह अरबी लफ्ज़ है, जिसका मतलब नफ़रत, बेज़ारी या अलग होना है।

📖 कुरआन में अल्लाह फरमाता है:
“बेरगुबती (नफ़रत) का एलान है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ से…”

(📖 सूरह तौबा: 9:1)

✅ हकीकत:

अगर इस रात की इस्लाम में कोई अहमियत होती, तो इसका नाम “लैलतुल बराअत” (لَيْلَةُ الْبَرَاءَةِ) होता, लेकिन ऐसा कोई नाम कुरआन और सही हदीस में नहीं मिलता।

यानी यह नाम इस्लामी नहीं, बल्कि गैर-इस्लामी असरात की वजह से रखा गया है।

17. शबे बरात की हकीकत – क्या इस रात को कोई फज़ीलत (महत्त्व) हासिल है?

✅ इस रात के बारे में जितनी भी हदीसें मिलती हैं, वह ज़ईफ (कमज़ोर) और मौज़ू (मनगढ़त) हैं।

📖 कारी अब्दुल बासित लिखते हैं:

“सही बात यह है कि इस्लाम में ‘शबे बराअत’ का कोई तसव्वुर नहीं है और 15 Shaban की रात के बारे में जितनी भी रिवायतें (हदीसें) मिलती हैं, वे ज़ईफ (कमज़ोर) और मौज़ू (झूठी) हैं।”

(📖 मौतबर उलमा की तसदीक)

👉 कुछ हदीसों में शबे बराअत की फज़ीलत का जिक्र मिलता है, लेकिन वह सब कमज़ोर और मनगढ़त हैं।

❌ 1. “15 Shaban की रात में अल्लाह दुनिया के करीब आता है और सबकी मगफिरत करता है…”

(📖 इब्ने माजा: 1390)

✅ इमाम बुखारी, इमाम इब्ने हजर, और इब्ने जौज़ी ने इसे ज़ईफ कहा है।

❌ 2. “इस रात में अगले साल की तक़दीर लिख दी जाती है, निकाह, मौत और औलाद का फैसला होता है…”

(📖 तफ़सीर इब्ने कसीर: 5/62)

✅ यह हदीस मुरसिल (कमज़ोर) है, और ऐसी हदीस से कुरआन का रद्द नहीं किया जा सकता।

Also Read: बिद’अत क्या है?

18. 15 Shaban की रात की हकीकत क्या है?

✅ 1. इस्लाम में इस रात की कोई खास अहमियत नहीं है।

✅ 2. इस रात के बारे में जितनी भी हदीसें हैं, वे ज़ईफ और मौज़ू हैं।

✅ 3. नबी (ﷺ), सहाबा (रज़ि.), और ताबिईन (रह.) ने इस रात को कोई खास इबादत नहीं की।

✅ 4. इस रात में न कोई फरिश्ते उतरते हैं, न तक़दीर लिखी जाती है, और न ही रूहें वापस आती हैं।

📖 इब्ने तैमिया (रह.) लिखते हैं:

“शबे बराअत की फज़ीलत वाली तमाम हदीसें या तो झूठी हैं या फिर कमज़ोर हैं।”

(📖 अल-फतावा, 23/131)

  🔴 शबे बराअत के साथ जोड़ी गई गलत बातें
1 15 Shaban की रात खास इबादतें करना❌ कोई सही हदीस नहीं जो बताती हो कि इस रात में नबी (ﷺ) ने कोई खास इबादत की।
2 100 रकअत की नवाफिल नमाज़ पढ़ना❌ इमाम इब्ने जौज़ी और सुयुती (रह.) ने इसे मनगढ़त कहा है।(📖 किताब अल मौजूआत, जिल्द 2, सफा 51)
3 12 रकअत नवाफिल नमाज़ पढ़ना❌ इमाम सुयुती, इब्ने हजर, और इब्ने इराक़ ने इसे मौज़ू (झूठी) हदीस कहा है।(📖 अलल-मुतनाहिया, जिल्द 1, सफा 70)
4 कब्रिस्तान जाना❌ कोई सही हदीस नहीं जो बताती हो कि इस रात में कब्रिस्तान जाना सुन्नत है।
5 हलवा बनाना और खिलाना❌ यह गलत है कि इस दिन हलवा खाना रसूलुल्लाह (ﷺ) की सुन्नत है।
6 चिराग़ा (रोशनी करना)❌ यह बरमकियों की ईजाद (घड़ंत) है, न कि इस्लामी अमल।
7 रूहों की वापसी
❌ कुरआन कहता है कि मरने के बाद इंसान की रूह वापस नहीं आती।
  ✅ क्या करना चाहिए?
1 ✅ इस रात को आम रातों की तरह गुजारना चाहिए।
2 ✅ पांचों वक्त की नमाज़ पढ़ें और जायज़ दुआ करें।
3 ✅ शबे बराअत की फज़ीलत की झूठी हदीसों से बचें।
4 ✅ किसी भी गैर-इस्लामी रस्म (हलवा बनाना, चिराग़ा करना) से बचें।

नतीजा

मालूम हुआ कि शाबान के महीने(Shaban Ka Mahina)में हमें क्या करना चाहिए और शबे बरात की हकीकत क्या थी और हमें क्या हुक्म दिया गया है।

इसलिए हमें चाहिए कि हम सहीह हदीसों पर अमल करें और बिदअत से बचें।

अल्लाह हमें सहीह इस्लाम समझने और अमल करने की तौफीक दे। आमीन!

2 thoughts on “Shaban Ka Mahina: फज़ीलत, नबी ﷺ के रोज़े और शबे बरात की हकीकत”

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