इस्लाम में शब-ए-मेराज की हकीकत: क्या 27 रजब की रात खास है?
इस्लाम में शब-ए-मेराज की हकीकत क्या है? क्या 27 रजब की रात की कोई खास अहमियत है? जानिए कुरआन और हदीस की रोशनी में इस रात की सच्चाई और इससे जुड़ी आम भ्रांतियां।”
नोट: इस्लाम एक मुकम्मल दीन है, जो हमें कुरआन और सुन्नत के मुताबिक़ जिंदगी गुजारने की तालीम देता है। हर साल 27 रजब की रात को कुछ लोग शब-ए-मेराज के तौर पर मनाते हैं और इस मौके पर खास इबादतें, नफ्ल नमाजें और जलसे आयोजित करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस अमल की कोई बुनियाद इस्लाम में मौजूद है? क्या इस रात की फज़ीलत साबित है या यह एक बिद’अत (नवाचार) है? आइए इस मसले को कुरआन और सही हदीस की रोशनी में समझते हैं।
शब-ए-मेराज कुरआन और हदीस की रोशनी में
शब-ए-मेराज का वाकिया कुरआन में इस तरह बयान किया गया है:
“पाक है वह (अल्लाह) जो रातों-रात अपने बंदे (मुहम्मद ﷺ) को मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़सा तक ले गया, जिसके इर्द-गिर्द हमने बरकतें रखीं…”
सूरह अल-इस्रा (17:1)
नोट: इससे यह साबित होता है कि मेराज का वाकिया हकीकत है और यह नबी ﷺ के लिए एक अजमत भरी रात थी, लेकिन इस आयत या किसी सही हदीस में यह साबित नहीं होता कि 27 रजब की रात को कोई खास इबादत की जाए या इसे मनाया जाए।
हदीस से प्रमाण:
1. नबी ﷺ ने फरमाया: “जो कोई हमारे इस दीन में कोई नई चीज़ शामिल करेगा जो उसमें नहीं है, वह अमल मुस्तरद (अस्वीकार्य) है।”
(सहीह बुखारी: 2697, सहीह मुस्लिम: 1718)
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2. सहाबा-ए- किराम और सलफ-सालेहीन में से किसी ने भी इस रात को खास इबादत नहीं की, जो इस बात का सबूत है कि इसे मनाना सुन्नत नहीं बल्कि बिद’अत है।
सहाबा और सलफ का अमल
नोट: इस्लामी इतिहास में कोई ऐसी मिसाल नहीं मिलती कि खुलफा-ए-राशिदीन, इमाम अबू हनीफा, इमाम मालिक, इमाम शाफई या इमाम अहमद बिन हंबल ने इस रात को कोई खास इबादत की हो। अगर यह रात खास इबादतों के लिए थी तो निःसंदेह वे इसका एहतमाम करते।
“हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (र.अ) ने फरमाया अगर तुम किसी ऐसे अमल को देखो जो नबी ﷺ और उनके सहाबा के जमाने में नहीं था, तो उसे बिद’अत समझो।”
(दरमी: 205)
क्या 27 रजब को मनाना बिद’अत है?
नोट: 27 रजब की रात को खास तौर पर इबादत करना और इसे एक त्यौहार या ईद की तरह मानना किसी भी शरई दलील से साबित नहीं है। इस्लाम में इबादत का तसव्वुर केवल वही है जो नबी ﷺ ने हमें सिखाया है। बिना किसी दलील के नफ्ल नमाज़ें और खास इबादतें करना बिद’अत में शामिल होता है, जिससे बचना जरूरी है।
“नबी ﷺ ने फरमाया हर नया काम (दीन में) बिद’अत है और हर बिद’अत गुमराही है।”
(सहीह मुस्लिम: 867)
नोट: हमें चाहिए कि अपनी इबादतों को केवल कुरआन और सुन्नत की हद तक सीमित रखें और हर किस्म की नई रस्मों और ग़ैर-इस्लामी रवैयों से बचें। अल्लाह तआला ने हमें दीन को मुकम्मल कर दिया है, इसलिए किसी भी नई चीज़ की जरूरत नहीं।
“अल्लाह तआला का इरशाद है आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया और अपनी नेमत तुम्हारे ऊपर पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन के तौर पर पसंद कर लिया।”
नसीहत और दुआ
अल्लाह तआला हमें हिदायत दे कि हम दीन को उसी तरह अपनाएं जिस तरह नबी ﷺ और सहाबा ने अपनाया और हर किस्म की बिद’अत से बचें।
“अल्लाहुम्मा अहदिना सिरातल मुस्तकीम, सिरातल्लज़ीना अन’अमता अलैहिम, ग़ैरिल मग़दूबे अलैहिम वल अद-दाल्लीन। आमीन।”
Conclusion
शब-ए-मेराज का वाकिया हकीकत है, लेकिन 27 रजब को खास इबादतें करना साबित नहीं।
“शब-ए-मेराज का वाकिया कुरआन और हदीस से साबित है, लेकिन 27 रजब की रात को खास इबादतों के लिए मनाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। हमें चाहिए कि हम अपनी इबादतों को केवल वही तक सीमित रखें जो नबी ﷺ और सहाबा के जमाने में थी। इस्लाम एक मुकम्मल दीन है, जिसमें किसी नई रस्म की जरूरत नहीं। अल्लाह हमें सही राह पर चलने की तौफीक दे और हर तरह की बिद’अत से बचाए। आमीन।”
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