बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रही
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहम करने वाला है।
सीरत-उन-नबी (भाग 1): नबी ﷺ से पहले मक्का के हालात
इस लेख में हम यह जानेंगे कि सीरत-उन-नबी ﷺ (Seerat-un-Nabi) के पहले भाग में मक्का में इस्लाम से पहले के हालात कैसे थे। उस समय के अरबों का अकीदा, उनके रस्म-रिवाज, बुतपरस्ती की शुरुआत और उनके सामाजिक तथा धार्मिक हालात पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
नबी ﷺ की जिंदगी को समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि मक्का का माहौल कैसा था। पूरे अरब की बात करने के बजाय, हम सिर्फ मक्का के हालात पर चर्चा करेंगे।
मक्का में नबी ﷺ से पहले का हाल
इस्लाम से पहले अरब समाज अज्ञानता (जाहिलियत) के अंधेरे में डूबा हुआ था। वे अपने पूर्वजों की मान्यताओं और परंपराओं पर चलते थे, जिनमें शिर्क (अल्लाह के साथ दूसरों को साझी ठहराना), बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा), कुरीतियां और सामाजिक अन्याय शामिल थे।
1. मक्का का धार्मिक माहौल
अरब मूल रूप से हज़रत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) और हज़रत इस्माईल (अलैहिस्सलाम) की शिक्षाओं को मानते थे और तौहीद (अल्लाह की एकता) पर ईमान रखते थे। लेकिन धीरे-धीरे शिर्क और बुतपरस्ती का रिवाज बढ़ता चला गया।
कुरान में आता है:
“और (याद करो) जब इब्राहिम और इस्माईल काबा की बुनियादें उठा रहे थे, (तो वे कहते जाते थे:) ऐ हमारे रब! इसे हमसे स्वीकार कर, निस्संदेह तू ही सब कुछ सुनने और जानने वाला है।”
(सूरह अल-बक़रह 2:127)
मक्का में काबा शरीफ को पहले अल्लाह की इबादत के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ लोगों ने इसमें बुत रख दिए और तौहीद से भटक गए।
हदीस में आता है:
“रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ‘सबसे पहले जिसने अरब में बुतपरस्ती शुरू की, वह अम्र बिन लुहै था।'”
(सहीह मुस्लिम 2856)
2. मक्का में शिर्क और बुतपरस्ती की शुरुआत
(A) अम्र बिन लुहय कौन था?
वह तौहीद पर था और इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) की तालीमात को मानता था।
लोग उसे बहुत इज्जत देते थे और बड़ा आलिम मानते थे।
उसने शाम (Syria) का सफर किया और वहां बुतों की पूजा होते देखी।
उसने सोचा कि यह वह शहर है जहा बहुत से नबी आए और वहा खुदा की आसमानी किताबें भी नाजिल होई थी, इसलिए वह हुबल नाम का एक बुत लेकर मक्का आ गया।
उसने इसे ख़ाना काबा में रखा और लोगों को इसकी इबादत के लिए बुलाया।
धीरे-धीरे, मक्का में बुत परस्ती का आगाज हुआ और लोग शिर्क में पड़ गए।
(तफसीर इब्न कसीर, सूरह अल-अनआम 6:74-81)
(B) मक्का के बुत
धीरे-धीरे मक्का के लोगों ने भी बुतों की पूजा शुरू कर दी, और फिर अरब के लगभग हर कबीले ने अपने अलग-अलग बुत बना लिए।
हालांकि, आपको बता दें कि मक्का में 360 बुत थे, और हर कबीले और खानदान का अलग-अलग बुत बना रखा था। जब वे कहीं जाते, तो खजूर का ही बुत बना लेते थे, और जब भूख लगती, तो उसे ही खा जाते थे।
(सहीह बुखारी: 2478, सहीह मुस्लिम: 1781)
(मुस्नद अहमद: 15718)
3. अरबों के अकीदे और ग़लत रस्में
(A) बुतों से सिफारिश की उम्मीद
अरबों का यह अकीदा था कि बुत अल्लाह के पास उनकी सिफारिश करेंगे।
वे हज के समय बुतों के आगे गिरते, सज्दा करते और उनसे दुआ मांगते थे।
अल्लाह तआला ने इस अकीदे की निंदा करते हुए कुरआन में फरमाया:
कुरान में आता है:
“क्या तुमने लात, उज़्ज़ा और तीसरी मनात (मूर्तियों) पर गौर किया?”
(सूरह अन-नज्म 53:19-20)
यह तीन बुत मक्का के लोगों के प्रमुख देवी-देवता बन चुके थे।
“वे लोग जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो, वे कुछ भी पैदा नहीं कर सकते, बल्कि वे खुद पैदा किए गए हैं।”
(सुरह अन-नहल: 20)
कुरान में अल्लाह फ़रमाते हैं:
“वे अल्लाह को छोड़कर उनकी इबादत करते हैं, जो न उन्हें कोई नफा पहुँचा सकते हैं और न कोई नुकसान। और वे कहते हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारी सिफारिश करने वाले हैं।”
(सूरह यूनुस 10:18)
(B) जानवरों पर ज़ुल्म और अजीब अकीदे
अगर किसी ऊंटनी ने लगातार 10 फीमेल बच्चे दिए, तो उसे आज़ाद छोड़ दिया जाता था।
उसके बाल नहीं काटे जाते, और कोई उस पर सवारी नहीं करता था।
अगर कोई बकरी 10 फीमेल बच्चे देती, तो उस बकरी के बाद जन्मे बच्चे सिर्फ मर्द खा सकते थे, औरतें नहीं।
अगर कोई जानवर मुर्दा पैदा होता, तो उसे सभी खा सकते थे।
कुरान में अल्लाह फरमाते हैं:
“अल्लाह ने न कोई ‘बहैरा’ (कान चिरा हुआ ऊँट), न कोई ‘साइबा’ (आज़ाद किया हुआ ऊँट) और न कोई ‘हामी’ (सिर्फ खास लोगों के लिए छोड़ा गया जानवर) बनाया, बल्कि यह काफिर लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं।”
(सूरह अल-माइदा 5:103, तफसीर इब्न कसीर)
(C) ज्योतिष और शगुन-अपशगुन पर विश्वास
अरब लोग सितारों की चाल देखकर भविष्यवाणी करते थे और किसी भी काम को शुरू करने से पहले पक्षी उड़ाकर शुभ-अशुभ मानते थे।
हदीस में आता है:
“जो व्यक्ति किसी ज्योतिषी के पास गया और उसकी बात को सच माना, उसकी 40 दिनों की नमाज़ें कबूल नहीं होतीं।”
(सहीह मुस्लिम 2230)
(D) जानवरों को गैरुल्लाह के नाम पर ज़िब्ह करना
वे जानवरों को बुतों के नाम पर ज़िब्ह करते थे और इसे पुण्य समझते थे।
“और जो चीज़ें अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर ज़िब्ह की गई हों, उन (का गोश्त) मत खाओ।”
(सूरह अल-माइदा 5:3)
“जो शख्स अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर ज़िब्ह करता है, वह अल्लाह के साथ शिर्क करता है।”
(सुनन अबू दाऊद 3313, सहीह)
(E) बुतों के लिए हिस्सा निकालना
वे अपनी खेती और खाने-पीने की चीज़ों का एक हिस्सा बुतों के लिए अलग करते थे।
जब तंगी आती, तो वे अल्लाह का हिस्सा भी बुतों को दे देते थे लेकिन बुतों का हिस्सा अल्लाह के लिए नहीं निकालते थे।
अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:
“और वे अल्लाह के लिए उसी में से हिस्सा तय करते हैं, जो उसने खेती और चौपायों (मवेशियों) में से पैदा किया, और कहते हैं कि ‘यह अल्लाह के लिए है और यह हमारे (बुतों के) साझीदारों के लिए है।’ फिर जो उनके साझीदारों (बुतों) के लिए होता, वह तो अल्लाह तक नहीं पहुँचता, लेकिन जो अल्लाह के लिए होता, वह उनके साझीदारों को मिल जाता। ये कितना बुरा फैसला करते हैं!”
(सूरह अल-अनआम 6:136)
(F) बुतों के नाम पर नियत करना
वे जब कोई मन्नत मांगते, तो बुतों का नाम लेते थे, न कि अल्लाह का।
“जो शख्स अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर मन्नत मांगे, वह शिर्क करता है।”
(सुनन निसाई 3803, सहीह)
वे खेती, सवारी और व्यापार में भी बुतों का नाम लेते थे।
“और जब वे किसी जहाज पर सवार होते हैं तो अल्लाह को दिल से पुकारते हैं, लेकिन जब वह उन्हें बचाकर किनारे पर पहुँचा देता है, तो वे फिर शिर्क करने लगते हैं।”
(सूरह अल-अंकेबूत 29:65)
(G) बदशगुनी का अकीदा
वे यह मानते थे कि अगर कोई चिड़िया दाईं ओर उड़ती, तो शुभ होता, और अगर बाईं ओर उड़ती, तो अशुभ होता।
वे खरगोश की हड्डी लटकाते और उसे शुभ मानते थे।
वे कुछ जानवरों और औरतों को अपशगुन समझते थे।
अल्लाह तआला फ़रमाते हैं:
“उन्होंने कहा, ‘हम तुम्हें और तुम्हारे साथ जो लोग हैं, उन्हें अशुभ मानते हैं।’ (नबी ने) कहा, ‘तुम्हारी बदशगुनी अल्लाह के पास है, बल्कि तुम आज़माए जा रहे हो।'”
(सूरह यासीन 36:19)
एक और आयत में अल्लाह फ़रमाते हैं:
“याद रखो! उनकी बदशगुनी खुद उन्हीं के साथ लगी हुई है, लेकिन उनमें से अधिकतर नहीं जानते।”
(सूरह अल-आराफ 7:131)
“बदशगुनी (तयरा) शिर्क है, बदशगुनी शिर्क है, बदशगुनी शिर्क है।”
(सुनन अबू दाऊद 3910, सहीह)
अल्लाह ने शिर्क की मजम्मत की
अल्लाह तआला ने कुरआन में इन अकीदों का खंडन किया:
“इन्हीं लोगों को मुसरिक कहा जाता है, जो अल्लाह को मानते हैं, लेकिन उसके साथ दूसरों की इबादत भी करते हैं।”
(सुरह अज़-जुमर: 3)
4. मक्का में सामाजिक हालात
(A) औरतों की स्थिति
इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों की कोई इज्जत नहीं थी। लोग बेटियों को जिंदा दफना देते थे क्योंकि उन्हें शर्म की बात समझते थे।
कुरान में आता है:
“जब उनमें से किसी को बेटी पैदा होने की खबर दी जाती है, तो उसका चेहरा ग़म से काला पड़ जाता है और वह घुटन महसूस करने लगता है।”
(सूरह अन-नहल 16:58-59)
“और वे अपनी बेटियों को नफरत के कारण ज़िंदा दफन कर देते थे, जबकि अल्लाह उन्हें रोज़ी देता है, उन्हें भी और तुम्हें भी।”
(सूरह अन-नहल 16:58-59)
इस आयत में बेटियों के जन्म पर अरबी समाज की नकारात्मक सोच का वर्णन किया गया है और बताया गया है कि वे बेटियों को अपमान समझते थे।
“और जब ज़िंदा गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा कि उसे किस गुनाह के कारण क़त्ल किया गया?”
(सूरह अत-तकवीर 81:8-9)
इस आयत में अल्लाह तआला ने इस ज़ुल्म की निंदा की है और क़यामत के दिन उन बच्चियों से पूछा जाएगा, जिन्हें जिंदा दफनाया गया था।
(B) जिन्ना आम था
1. महिलाएं एक से अधिक पुरुषों से संबंध रखती थीं
हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि इस्लाम से पहले अरबों में चार प्रकार की शादियाँ होती थीं। उनमें से एक यह भी थी कि महिलाएं एक से अधिक पुरुषों से संबंध रखती थीं, और जब गर्भवती हो जाती थीं, तो किसी एक पुरुष को पिता घोषित कर दिया जाता था।
(सहीह बुखारी, हदीस 5127)
2. बाप की बीवियां
बाप की बीवियां जो की सौतेली मां है उनसे भी शादी कर लिया करते थे।
“और अपनी उन महिलाओं से निकाह न करो जिनसे तुम्हारे बाप ने निकाह किया था, सिवाय इसके कि जो पहले हो चुका।”
(सूरह अन-निसा 4:22)
इस आयत से पता चलता है कि इस्लाम से पहले अरब समाज में लोग अपने सौतेली मांओं से विवाह कर लिया करते थे, जिसे इस्लाम ने हराम कर दिया।
(C) ब्याजखोरी और जुआ
ब्याजखोरी और जुए का कारोबार बहुत आम था। अमीर लोग गरीबों का शोषण करते थे और ब्याज के नाम पर उन्हें बर्बाद कर देते थे।
कुरान में आता है:
“जो लोग सूद (ब्याज) खाते हैं, वे ऐसे उठेंगे जैसे किसी शैतान ने उन्हें छूकर पागल बना दिया हो।”
(सूरह अल-बक़रह 2:275)
निष्कर्ष (Conclusion)
इस्लाम से पहले मक्का में शिर्क, बुतपरस्ती, अन्याय, और सामाजिक बुराइयाँ फैली हुई थीं। इंसान तौहीद से भटक चुका था, और समाज बुराइयों में डूब चुका था। ऐसे माहौल में अल्लाह ने अपने आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद ﷺ को भेजा, ताकि वे दुनिया को तौहीद का सही पैग़ाम दें और समाज को इस्लाम की रोशनी से रोशन करें।
अगले भाग में: हम जानेंगे नबी की पैदाइश और उनकी परवरिश की कहानी।
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